जब खुद अपनी दुनिया लूटी,
गोंद मिली प्रीतम की छूटी।
रोकर आँखें हुयीं बहूटी,
गोरी कहे पिय वापस आओ!॥1॥
तुम ही हो धन-धाम हमारे,
प्रीतम का नित नाम पुकारे।
छूट गये हैं सभी किनारे,
'फँसी भँवर में' वापस लाओ!2
दुनिया की रंगीनी देखी,
अपनी बुद्धि नहीं कुछ पेखी।
कह न सकूँ कुदरत की लेखी,
फिर से अपना मुझे बनाओ!3॥
कैसे कहूँ कब नींद लग गयी,
खुद को खुद से कब मैं ठग गयी।
तड़प उठे जानी-पहचानी,
अब तो मुझको ना तरसाओ!4॥
कब आँगन में फूल खिलेगा,
बिछुड़ा प्रीतम मुझे मिलेगा।
किस जिद पर कब पिय पिघलेगा,
'सत्यवीर' रो उसे बुलाओ!5॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
[पुस्तक-'चल प्रीतम के देश']