जब खुद अपनी दुनिया लूटी,
गोंद मिली प्रीतम की छूटी।
रोकर आँखें हुयीं बहूटी,
गोरी कहे पिय वापस आओ!॥1॥
तुम ही हो धन-धाम हमारे,
प्रीतम का नित नाम पुकारे।
छूट गये हैं सभी किनारे,
'फँसी भँवर में' वापस लाओ!2
दुनिया की रंगीनी देखी,
अपनी बुद्धि नहीं कुछ पेखी।
कह न सकूँ कुदरत की लेखी,
फिर से अपना मुझे बनाओ!3॥
कैसे कहूँ कब नींद लग गयी,
खुद को खुद से कब मैं ठग गयी।
तड़प उठे जानी-पहचानी,
अब तो मुझको ना तरसाओ!4॥
कब आँगन में फूल खिलेगा,
बिछुड़ा प्रीतम मुझे मिलेगा।
किस जिद पर कब पिय पिघलेगा,
'सत्यवीर' रो उसे बुलाओ!5॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
[पुस्तक-'चल प्रीतम के देश']
* शंकर तब विषपान करेँ *
ReplyDeleteJanuary 28, 2014 at 11:18am
विषय- ग्रसित,स्थूल लाभ- हित-
पक्ष सभी जब प्राण हरेँ।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्, शंकर तब विषपान करेँ॥1॥
अकट हलाहल मंथन का फल,
भीत- गीत प्रत्येक अधर पर।
भोग- पार का वासी ही,
इस पल का है नित उत्तम- उत्तर।
स्मित- मुख, अविभेद- सहजता धर, किसका आह्वान करेँ?
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्, शंकर तब विषपान करेँ॥2॥
प्रथम चरण मेँ मुख मेँ लेकर,
पूर्व- वपित असहजता झेली।
लिया कण्ठ मेँ धार अकट विष,
अनुश्रुतियोँ से पारी खेली।
भीष्म- घात अभिपचित दशा मेँ, दग्ध- दशा का भान हरेँ।
हेतुरहित, अविरल अनीहवत् शंकर तब विषपान करेँ॥3॥
यह विष की अनजान दग्धता,
आकुल करे समस्त अभार।
गरल-पान, प्रत्यूह- भीति हित,
रचता अभिनय का विस्तार।
जब विवेक पर ग्रहण- रूप विष, सम्मोहित सम-सार करे।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्, शंकर तब विषपान करेँ॥4॥
भुक्ति- मुक्ति पर शब्द न जन्मे,
शून्य दिशा मेँ अटकी दृष्टि।
क्या मुस्कान?, शोध कर जानो,
खिले हृदय, क्या अघटित वृष्टि?
व्याख्यायित क्षमता हारे जब, असहज पत का मान मरे।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्, शंकर तब विषपान करेँ॥5॥
'सत्यवीर' मन्थन का साक्षी,
अमृत का बल मृत का मूल।
घटो! स्यात् घट मेँ जा पाओ,
इक प्रकाश मेँ लय सब शूल।
विघटन पर निश्चलता टूटे, दग्ध कण्ठ पर गान मरे।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्, शंकर तब विषपान करेँ॥6॥
अशोक सिँह 'सत्यवीर' {पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}