Ashok Singh Satyaveer

Tuesday, July 19, 2016

* बिजूका *


"बिजूका"

रम्मू की मटर की खेती खतरे में थी,
शाम गहराते ही समा जाता था एक अनजाना सा भय रम्मू के दिल में;
किसी पल किसी दिशा से नीलगायों की एक फौज के हमला बोलने का बना रहता अंदेशा।
अपनी फसल बचाने को रम्मू को सूझी एक तरकीब-
क्यों न नीलगायों को धोखा देने के लिए एक 'धोखा' खड़ा किया जाये खेत में;
अरे वही धोखा, जिसे बिजूका कहा जाता है ना;
सरकण्डे के डंड़ों को,
एक मानवीय आकृति में बाँधकर एक कपड़ा पहना दिया जाता है;
रात में दूर से बिजूका देखकर एक आदमी के खड़े होने का हो जाता है भ्रम और इसी भ्रम में रात के वक्त रहते हैं दूर जानवर खेत से।
खैर, जैसे-तैसे
साल दर साल बिजूका खड़ा कर जानवरों से खेती की रक्षा करने का होता रहा प्रयत्न;
और कुछ हद तक कामयाब भी रहा।
...   ...
इस साल रम्मू ने अपने खेतों के चारों ओर लगा दिए हैं कँटीले तार;
अब बिजूके की नहीं रही जरूरत।
किसी की सलाह पर रम्मू ने कँटीले तारों में दौड़ा दी बिजली,
और रात के वक्त दो नीलगाय मर गये कँटीले तार में दौड़ती बिजली से;
ऐसे में रम्मू के अपने बिजूका तकनीक की आती है याद बार बार,
और उसकी आँखों से गिर पड़ते हैं आँसू दो-चार।

>>> अशोक सिंह 'सत्यवीर'
काव्य संग्रह - "कुछ टेसू जो नजर न आये"

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