Ashok Singh Satyaveer

Thursday, July 21, 2016

मन की कौन थकान हरे?

मन की कौन थकान हरे?
अपनी ही सुधि नहीं किसी को,
नभ में कहाँ उड़ान भरे?
मन की कौन थकान हरे?।।१।।

नित-प्रति की आपाधापी में,
अपनी उलझन के मंथन में ।
बीत रहे मधुमास अधूरे,
अनजाने मन के गुण्ठन में ।

अपनी पीड़ा से आकुल जब,
सुमनकुंज श्मशान करे।
मन की कौन थकान हरे।।२।।

बदली में लुक-छिप जाते हैं,
चन्दा भी औ सूरज भी।
पथराई आँखों से देखूँ,
छूट रहा अब धीरज भी।

अपने पथ का पथिक अचंभित,
पथ कैसे आसान करे?
मन की कौन थकान हरे?।।३।।

विरलों की मति में आता सच,
जीवन इक मधुशाला है।
तुम पीते-पीते थक जाओ,
भरा रहे पर प्याला है।

लेकिन जब ले प्रबल शिकायत,
जीवन का अपमान करे।
मन की कौन थकान हरे?।।४।।

>>> अशोक सिंह 'सत्यवीर'[ Thinker, Ecologist and Geographer]
{ गीत संग्रह - "पहरे तब मुस्काते हैँ"}

Tuesday, July 19, 2016

* बिजूका *


"बिजूका"

रम्मू की मटर की खेती खतरे में थी,
शाम गहराते ही समा जाता था एक अनजाना सा भय रम्मू के दिल में;
किसी पल किसी दिशा से नीलगायों की एक फौज के हमला बोलने का बना रहता अंदेशा।
अपनी फसल बचाने को रम्मू को सूझी एक तरकीब-
क्यों न नीलगायों को धोखा देने के लिए एक 'धोखा' खड़ा किया जाये खेत में;
अरे वही धोखा, जिसे बिजूका कहा जाता है ना;
सरकण्डे के डंड़ों को,
एक मानवीय आकृति में बाँधकर एक कपड़ा पहना दिया जाता है;
रात में दूर से बिजूका देखकर एक आदमी के खड़े होने का हो जाता है भ्रम और इसी भ्रम में रात के वक्त रहते हैं दूर जानवर खेत से।
खैर, जैसे-तैसे
साल दर साल बिजूका खड़ा कर जानवरों से खेती की रक्षा करने का होता रहा प्रयत्न;
और कुछ हद तक कामयाब भी रहा।
...   ...
इस साल रम्मू ने अपने खेतों के चारों ओर लगा दिए हैं कँटीले तार;
अब बिजूके की नहीं रही जरूरत।
किसी की सलाह पर रम्मू ने कँटीले तारों में दौड़ा दी बिजली,
और रात के वक्त दो नीलगाय मर गये कँटीले तार में दौड़ती बिजली से;
ऐसे में रम्मू के अपने बिजूका तकनीक की आती है याद बार बार,
और उसकी आँखों से गिर पड़ते हैं आँसू दो-चार।

>>> अशोक सिंह 'सत्यवीर'
काव्य संग्रह - "कुछ टेसू जो नजर न आये"

Sunday, July 17, 2016

Friday, July 15, 2016

** And...... India Is Great **

Ashok Singh Satyaveer
पश्चिम की सभ्यता की हमेशा हम निंदा करते हैं और उसे भोगवादी सभ्यता कहकर उसका उपहास करते हैं । जरा ग़ौर करिए --
1• हम एक दूसरे की टांग खींच रहे हैं जबकि वे अपना काम कर रहे हैं।
2• हममें जातिवाद जैसे कोढ कूट-कूट कर भरे हैं जबकि उनमें व्यक्ति की योग्यता को महत्व दिया जाता है ।
3• एक व्यक्ति को चोट लग जाय या गिर जाय तो उसे हमसे पहले एक पश्चिमी व्यक्ति सहायता देने को तैयार होगा ।
4• हमने पूरे देश को कूड़ेदान बना रखा है और पश्चिम के देश का हर नागरिक हर स्थान के प्रति स्वच्छता की दृष्टि से जागरुक मिलेगा ।
5• हमारी सड़क कब बनती है और कब टूट-फूट जाती है कौन कह सकता है? परंतु पश्चिम की सड़क ईमानदारी से बनायी जाती है जो जल्दी नहीं टूटती है।
6• हम पानी जैसे प्राकृतिक अवदानों के प्रति लापरवाह हैं । यदि पानी की टोंटी लीक कर रही है तो उसे ठीक कराने और पानी बचाने के लिए एक पश्चिमी व्यक्ति बहुत आकुल दिखेगा। हमारे तो कहने ही क्या? अपनी सड़क और गाड़ी धोने में हजारों लीटर जल बर्बाद करदेते हैं ।
7• हमारे यहां दान का बड़ा महत्व है भीख मांगने वाले और प्रवचन से पैसा एकत्र करने वाले आध्यात्मिक कहलाते हैं और अनाज और पैसा पैदा करने और देने वाला भौतिक कहलाता है । यहाँ दूसरों से लेना, मांगना आध्यात्मिक कार्य है और अपने श्रम से कमाना और उत्पादन करना भौतिक कार्य है। इसीलिए पश्चिमी देशों से कर्ज लेने वाले, अस्त्र-शस्त्र लेने वाले, सहायता की भीख मांगने वाले हम अभी भी विश्वगुरू हैं आध्यात्मिक हैं जबकि हमारी मदद करने वाले, लाखों भारतवंशियों को रोजगार देने वाले पश्चिमी देश भौतिक हैं ।
शेष फिर ...... [ translated from the book - "And......India is Great" ]
Ashok Singh Satyaveer

Thursday, June 9, 2016

जिन्दगी एक राज है

ज़िन्दगी एक राज़ है अन्दाज़ निराले,
है बदलती रुख इस कदर,
कब, कौन सँभाले?
जब जोर नहीं चल सके
इस पर कि ज़रा सा,
ख़ुद को करो पूरी तरह से इसके हवाले।।१।।

तुम ज़िन्दगी से हारकर,
न होना कभी नाराज़,
मौसम सरीखी जिन्दगी,
संग बदलकर अन्दाज़।
मग़रूर रहो या कि हो-मशहूर ओ ज़नाब;
सीखो मगर अब तुम,
करो जिससे कि ख़ुद पर नाज़।।२।।

हिम्मत से अग़र डट गये,
रास्ते पे शान से,
बदलेगी फ़िज़ा दोस्त मेरे मुस्कुराओगे।
मुस्किल ख़तम हो जायेगी मसले करोगे हल;
किस्मत बदल जायेगी,
औ मंजिल को पाओगे।।३।।

मज़बूत दिल से हौसले-
रख़, चलो 'सत्यवीर',
कुदरत ने सभी को,
बना भेजा यहाँ अमीर।
मस्ती रहे कायम हमेशा,
होश में रहो;
बेख़ौफ हो अब तो चलाओ दोस्त मेरे तीर।।४।।

अशोक सिंह सत्यवीर
[गज़ल संग्रह- मछली पर रेत और रेत में गुल]

*कौन कर सकता यहां पर*

कौन कर सकता यहाँ पर,
शक्ल से पहचान?
अप्सरा का रूप धरकर,
आ रहे मेहमान।।१।।

जहर दिल में छुपाकरके
हो रहे हलकान।
कौन जाने किस घड़ी,
चेहरा दिखे भगवान?।।२।।

मोहिनी सूरत लिए और,
जुबाँ कोयल की,
क्या कभी कौव्वा छुपा-
पाया असल पहचान?।।३।।

जरा रुककर देख लो,
'यह कौन है इन्सान?'
कर भरोसा फ़ँस गये,
'क्या उबरना आसान?'।।४।।

बहुत अच्छे हैं कई,
पर पेश हो पाते नहीं ।
पेश होना कला है,
कुछ हैं कि कह पाते नहीं।।५।।

'सत्यवीर' ठगे गये,
ग़र बह गये ज़ज्बात में ।
जेब कटते देर क्या?
बस एक मुलकात में ॥6॥

>>>अशोक सिंह सत्यवीर
[From collection- मछली पर रेत और रेत में गुल]

** सहज हैं सब चढ़ाव-उतार **

ज़िन्दगी का है यही एहसान
बदलने का लय सिखाती है।
बदलता मौसम यही कहता
जड़ बनी गति जंग खाती है।।1।।

जहाँ तक है बात छल की तो,
वो हमारे हृदय में बैठा।
उठ रहा जो प्रकृति का आवेग,
अहं माने नहीं, बस ऐंठा।।2।।

बदलते सब रंग लो स्वीकार,
जिन्दगी से जता दो आभार।
'सत्यवीर' सुबुद्धि कहलाती,
स्वप्न हो जाते सभी साकार।।3।।

प्रेरणा देती बदलती जिंदगी,
जड़ बनो मत, औ न मानो हार।
'सत्यवीर' कैसा विचित्र प्रहार,
सहज हैं ये सब चढ़ाव-उतार।।4।।

>अशोक सिंह सत्यवीर
[पुस्तक - यह भी जग का ही स्वर है, Page-63]