Ashok Singh Satyaveer

Thursday, June 9, 2016

*कौन कर सकता यहां पर*

कौन कर सकता यहाँ पर,
शक्ल से पहचान?
अप्सरा का रूप धरकर,
आ रहे मेहमान।।१।।

जहर दिल में छुपाकरके
हो रहे हलकान।
कौन जाने किस घड़ी,
चेहरा दिखे भगवान?।।२।।

मोहिनी सूरत लिए और,
जुबाँ कोयल की,
क्या कभी कौव्वा छुपा-
पाया असल पहचान?।।३।।

जरा रुककर देख लो,
'यह कौन है इन्सान?'
कर भरोसा फ़ँस गये,
'क्या उबरना आसान?'।।४।।

बहुत अच्छे हैं कई,
पर पेश हो पाते नहीं ।
पेश होना कला है,
कुछ हैं कि कह पाते नहीं।।५।।

'सत्यवीर' ठगे गये,
ग़र बह गये ज़ज्बात में ।
जेब कटते देर क्या?
बस एक मुलकात में ॥6॥

>>>अशोक सिंह सत्यवीर
[From collection- मछली पर रेत और रेत में गुल]

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