कौन कर सकता यहाँ पर,
शक्ल से पहचान?
अप्सरा का रूप धरकर,
आ रहे मेहमान।।१।।
जहर दिल में छुपाकरके
हो रहे हलकान।
कौन जाने किस घड़ी,
चेहरा दिखे भगवान?।।२।।
मोहिनी सूरत लिए और,
जुबाँ कोयल की,
क्या कभी कौव्वा छुपा-
पाया असल पहचान?।।३।।
जरा रुककर देख लो,
'यह कौन है इन्सान?'
कर भरोसा फ़ँस गये,
'क्या उबरना आसान?'।।४।।
बहुत अच्छे हैं कई,
पर पेश हो पाते नहीं ।
पेश होना कला है,
कुछ हैं कि कह पाते नहीं।।५।।
'सत्यवीर' ठगे गये,
ग़र बह गये ज़ज्बात में ।
जेब कटते देर क्या?
बस एक मुलकात में ॥6॥
>>>अशोक सिंह सत्यवीर
[From collection- मछली पर रेत और रेत में गुल]
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