Ashok Singh Satyaveer

Thursday, June 9, 2016

आँखों में वह लगन कहाँ?


आँखों में वह लगन कहाँ?

मिलता है सम्मान जगत में, किन्तु प्यार की चुभन कहाँ?
स्वागत को तैयार सभी, पर आँखों में वह लगन कहाँ?॥1॥

जब मेरे कदमों में दुनिया,
फूल बिछाये जाती है।
वैभव पर मँडराती तितली,
रस लेकर उड़ जाती है।
ऐसे में, मन के सूने आँगन में, हूक उठेगी ही;
पीड़ा तो भरती नित उर में, किन्तु करें कुछ वमन कहाँ?॥2॥

बारिश की बूँदें जब गिरतीं,
मन में भाव अगाध भरे।
अलसाई आँखों में जगते,
फिर से सपने हुऐ हरे।
उगतीं अगणित आशामणियाँ, पीड़ा पर करतीं नर्तन;
पथ तो दिखें अनेक, प्रश्न है 'किन्तु करें हम गमन कहाँ?'॥3॥

ऋद्धि-सिद्धि पर झुकने को,
आतुर जगती के कदम सदा।
भाँप न पायें किन्तु, क्रमिक-
गति से आती मादक विपदा।
सोने पर सोने की करते, रात दिवस तैयारी सब;
दौड़ लगी सबमें बढ़ने की, किन्तु दिखे कुछ अमन कहाँ?॥4॥

अधरों की मुस्कान, न जाने-
किन भावों पर क्रीत रही।
मृदुल उलाहन की आहट पर,
भ्रमरों पर क्या बीत रही?
गीत रहित अधरों की भाषा में, कुछ तो उन्माद भरा;
'सत्यवीर' क्या मौन निमन्त्रण! छुप सकता है गगन कहाँ?॥5॥

अशोक सिंह 'सत्यवीर' { सद्य: प्रकाशित पुस्तक-'इक पावस ऋतुओं भारी'}

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