Ashok Singh Satyaveer

Saturday, May 28, 2016

भारतीय संत परंपरा *सहजोबाई*

मुक्‍त पुरूषों पर बोलना आसान है। उन्‍हें मैं समझ सकता हूं-वे सजातीय है। मुक्‍त नारी पर बोलना थोड़ा कठिन है। वह थोड़ा अंजान, अजनबी रस्‍ता है। ऐसे तो पुरूष ओर नारी अंतरतम में एक ही है। लेकिन उनकी अभिव्यक्ति बड़ी भिन्‍न-भिन्‍न है। उनके होने का ढंग उनके दिखाई पड़ने की व्‍यवस्‍था उनका व्‍यक्‍तित्‍व उनके सोचने की प्रक्रिया, न केवल भिन्‍न है बल्‍कि विपरीत भी है।
      अब तक किसी मुक्‍त नारी पर न बोला। सोचा तुम थोड़ा मुक्‍त पुरूषों को समझ लो। तुम थोड़ा मुक्‍ति का स्‍वाद ले लो। तो मुक्‍त नारी को समझना थोड़ा आसान हो जाए।
      जैसे सूरज की किरण तो सफेद है। पर प्रिज्म से गुजर कर सात रंगों में टुट जाती है। टूटने से पहले एक थी। मिलने के बाद फिर एक हो जाएगी। बीच में जो बड़ा फासला है रंगों का वह भेद मिटना नहीं चाहिए। भेद सदा बड़ा बना रहे, यहीं उचित ओर ठीक है। बल्‍कि उसी भेद में जीवन का रस है। लाल-लाल हो, हारा-हारा हो, तभी तो हरे वृक्षों में लाल फूल नजर आ सकेगें।
      प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के भीतर दोनों है। पुरूष और भीतर छीपी है। और स्‍त्री ओर स्‍त्री के भीतर छीपी है पुरूष। पुरूष का स्‍वभाव दूर दृष्‍टि है और औरत का स्‍वभाव निकट दृष्‍टि। सहजो के वचन बड़े नास्‍तिक के मालूम पड़ेंगे।
      ‘’राम तंजू पै गुरु न विसारू।‘’
      छोड़ सकती हूं परमात्‍मा को पर गुरू को नहीं छोड़ सकती हूं। मुझे कुछ अड़चन नहीं राम को त्‍याग सकती हूं। लेकिन गुरु को छोड़ना असंभव है। सहजो अकेली स्‍त्री नहीं है जिस पर मैं बोलूगा। पर शुरू आत उससे होती है। क्‍योंकि उसमें स्‍त्री बड़े परिशुद्ध रूप में प्रकट हुई है।
      सहजो को समझना है तो उसके वचनों में गहरे जाना होगा। उसके वचन टकसाल से निकले बिलकुल सीधे-साधे हे। सहजो कोई पंडित तो नहीं है। को ई कवित्रि तो नहीं है। वह छंदों से जीवन से मुक्‍त हे। हां बाँध ले तो उसका बड़ापन होगा। सहजो कोई आडम्बर नहीं करती। बात साफ-साफ कह दी है। कुछ छिपाया नहीं हे। और उस ढंग से कही है जो कभी नहीं कहीं गई। जब परमात्‍मा किसी में उतरता है तो हर बार नये ढंग से उतरता है। पुनरूक्‍ति परमात्‍मा को पसन्‍द नहीं है। इस लिए उधारी का तो कोई उपाय ही नहीं है।
      सहजो का एक-एक पद अनूठा है। शब्‍दों के बीच में खाली जगह को पढ़ना पड़ेगा। पंक्‍तियों के बीच में रिक्‍त स्‍थान को पढ़ना पड़ेगा। वो जो खाली जगह है वह पर्याप्त प्रणाम है। बुद्धत्‍व के वचनों का। लेकिन सहजो के वचनों में खाली जगह का तुम नहीं पढ़ सकोगे। उस के लिए तुम्‍हें अपने अन्‍दर की खाली जगह को पढ़ना आना चाहिए। जिस दिन कोई अपने भीतर की खाली जगह को पढ़ लेता है उसी दिन वह बहार के शब्‍दों की खाली जगह को पढ़ सकता है लिख सकता है।
      सहजो को ऐसा एक गुरु मिल गया जो अंदर से खाली हो गया था। उस के गुरु का नाम चरन दास था। पे बड़े सीधे-साधे आदमी थे। इतने सीधे-साधे की साधारण आदमी उन्‍हें पहचान भी नहीं सकता। वह यह जान ही नहीं सकता की मुझमें इनमें क्‍या भेद है। इतनी सरला और सादगी अभी तक किसी संत में नहीं उतरी। वरना तो जब परमात्‍मा उस में उतरता है। तब वह दूसरा ही हो जाता है। देखा न एक दुल्‍हन को शादी के दिन कैसा रूप चढ़ता है उसे आप लाखों में भी पहचान सकोगे की कोन दुल्‍हन है। एक ही बुद्धत्‍व जब उतरता है तब आदमी दूसरा ही हो जात है। पर चरन दास इतने सरल और सीधे थे की उनमें जरा भी भेद पकड़ न पाओगे। भेद तो पडा पर उसकी छाया बहार आप पकड़ नहीं सकते।
      बह बहुत सीधे थे। बिलकुल सामान्‍य थे। और ध्‍यान रखना सामान्‍य में ही तुम असमान्य की झलक पा लो तभी तुम बचाए जा सकते हो। तभी तुम जाना की कोई करीब भी है दूर भी है। जो कभी-कभी इतने करीब होता है कि तुम्‍हें संदेह होने लगता है कि इसमें ओर हममें भेद क्‍या हे। शायद यह भी तो नहीं डूब जायेगा। तब हम कहां बच पायेंगे।
      चरन दास बड़े सीधे-सरल आदमी थे। उन्‍होंने सहजो को बचाया। इस लिए सहजो उनके गीत गाए चली जा रही हे। वह कहती है हरि को भी त्‍यागना हो तो त्‍याग दूंगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अरे हमारे गुरु रहे हम हरि को फिर पा लेंगे। पर गुरु को त्याग ना हो तो न त्‍याग सकूंगी। क्‍योंकि हरि ने तो हमें मझधार में डाला, फेंक दिया डूबने के लिए और गुरु ने मझधार से बचाया। हरि ने तो माया में उलझा दिया था हमें और गुरु ने छुडाया है। फिर भला गुरु को कैसे त्‍याग सकती हूं।

     चरन दास का तो किसी को पता ही नहीं चलता। उनकी तो खबर ही नहीं आती। वह कोई तराशे हीरे तो नहीं थे वह तो अनघड़ थे शुद्ध जैसे अभी-अभी खादन से निकले है, उसपर धुल धमास  सब जमा है। उन्‍हें कोन पहचान सकता था। यह तो सहजो की सहजता थी। उनकी पारखी आंखे थी। जो उन पर पड़ी और उनके रंग में रंग गई। और अपने गीतों में गुरु की महिमा गई। उनकी ही बाणी चरन दास की खबर देते है।
      चरन दास की दो शिष्‍यायें थी। एक थी सहजो बाई और दुसरी थी दया बाई। ये  चरन दास की दो आंखें है। जैसे किसी पाखी के दो पंख हो। इन दोनों ने चरण दास के गीत गाए है। तब लोगो को चरन दास की खबर लगी।
      इन दोनों के स्‍वर इतने एक है कह आप दोनों में भेद नहीं कर पाओगे। एक होंगे ही क्‍योंकि एक ही गुरु ने दोनों को बचाया है। एक ही गुरु की छाया दोनों पर पड़ी ही। एक ही गुरु का ह्रदय दोनों में धड़क रहा है। एक ही प्रेम की रस धारा दोनों में प्रवाहित हो रही है। उसी उर्जा ने जीवन नये आयाम दिये उस  बगिया को महकाया है। फूल खिला ये हे। भँवरों न गुंजान की है, रौनक दी ही।
      इस लिए दोनों एक ही प्राण की दो स्‍पंदन है। इस लिए जब में सहजो पर बोल रहा हूं तो इस प्रवचन माला का नाम दिया है—‘’बिन धन परत फुहार’’ ये शब्‍द दया बाई के है। जब दया पर मैं बोलूगा, तो जो श्रंखला का नाम रखा है उसमें शब्‍द सहजो के है—‘’जगत तरैया भोर की’’ जैसे सुबह का डुबता तार अब गया की तब गया। ऐसा ये जगत है। इसलिए दोनों के शब्‍द मैंने – सहजो बाई के लिए दया का शब्‍द उपयोग किया है, दया के लिए सहजो का करूंगा।

Friday, May 20, 2016

🌹Geography of Public Policy🌹

Geography of Public Policy

Preface

🍁What does family mean🍁 -Preface🍁


THINK A LITTLE BIT ABOUT THE SURVIVAL OF LOVE WHAT IS BASIC ASPECT TO FORM A FAMILY

Trust is not natural. It is a sophisticated phenomenon. Trust emerges through the (on the basis of) real actions. It is benefitted from both sides and benefits to the both. All type of morals, ideals and rigidity swallow the love.

The Family is formed with practical relationships, physical, psychological as well as behavioural actions. Have you heard about any type of an ideal that can make a family? Perhaps not. Only a harmony between both husband and wife create a family, passing though a practical action. Then a new phenomenon takes place, what is the base for a trust that bridges them. When an ideal becomes rigid, an irritation takes place, and trusts ends.


How a happy life is formed? Suspicion and trust both are harmful. Only watchfulness is the key. Wherever you go, go with your partner; whatever you do, do together. In Indian tradition each social ceremony is performed with the participation of wife and husband, both. Both are considered as inseparable part of each other. Wife is said as Ardhangini as like Lord Shiva is called as Ardh-Narishwar. So try to win the partners heart daily, by your doings.


How can a love sustain for a long period? When this feeling starts, there is an eagerness and anxiety in the mind, but with the passing of time, it decreases. With the start, a lover (he/she) tries all ways to impress the wished one; but slowly-slowly he/she loosens the charm, and love goes to a quarrel. So the clue is to continue the eagerness regularly from starting to the end, with warm enthusiasm, because the love is mere a happening, not the permanent. 

[From the book ''WHAT DOES FAMILY MEAN?" BY Ashok Singh Satyaveer]
Ashok Singh Satysveer[Mob: +918303406738]

🌺Science of Harmony🌺 - 🌴Preface 🌴

The word "harmony" is an amazing word. This comes from Physics where this is used for a balancing situstiation of pitch when instrument produces a lovely voice. He was the Plato who discussed this word in 'REPUBLIC' in book seven in detail. Actually, there is a need of harmonization among all facets of life, in all situations even and odd. As Darvin says that survival of the fittest is established, not of fit or fitter but fittest, and for the explanation he gave the idea of Ecology what is study of relationship between and relationship within.

Adjustment is not "to surrender" no..no.. It is, using the best way to sustain in life , it is to select right thing at right time, to chosr right path at right time but how? There is a need to harmonize our senses to look farword, todevelop in right way.

to be continued..............Ashok Singh Satyaveer

[from the book 'SCIENCE OF HARMONY']

Thursday, May 19, 2016

Non-Fictions by Ashok Singh Satyaveer

{1} Challenges Before Disaster Mitigation

{2} Applied Environmental Ecology

{3} New Emerging Dimensions in Environmental Ecology

{4} In Search of Beauty

{5} When I Cracked the Secret

{6} The Ways to Reach the Secret

{7} Geography: A Complete and
Comparative Study

{8} Western Coastal Regions of India: A Survey

{9} Facets of Human Life

{10} Web of Conversations

{11} Applied Phases of Social Work

{12} Science of Harmony

{13} When Geography Exposes Itself

{14} What does family mean?

{15} Peacock Dances and Nature Smiles

{16} Women Worthies

{17} And... India Is Great

{18} Essence of Positivity

{19} How Hypocricy Emerges?

{20} How Can Maniac be Strucural?

{21} Space Odyssey: An Introduction to the Astronomy

{22} The Spirituality Inborn

{23} Indian Foreign Policy: Changing Perspectives

{24} Is Non-violence a Kind of Violence or Implications of Non-violence
{25} Is Competition for Government Job Killing the Youth-Age?

{26} Geography of Public Policy: Emerging Perspectives

{27} Medical Geography in New World

{28} Fragrance of Self- Culture

{29} Nature: The Ultimate Detective

{30} A Dialogue on Sin and Virtues

🌱**सहज गति में अवरोध हुआ **🌱

🌺* सहज गति में अवरोध हुआ *🌺

उछल पड़ीं उत्ताल तरंगें, अनचाहा प्रतिरोध हुआ।
सहज गति में अवरोध हुआ॥1॥

सागर का तज वृहद्‌ किनारा,
खिंचे लहर के आकर्षण में ।
तट से पृथक दूर तक आये,
उत्सुकता बढ़ती क्षण- क्षण में ।
किन्तु, मिला कुछ नहीं भँवर में, तट छूटा, त्रुटि- बोध हुआ॥2॥

आभासी सुख प्राप्ति हेतु,
आधार छोड़, हम फँसे भँवर में ।
शक्ति शिथिल, निस्तेज बदन,
नौका जर्जर, जीते हम डर में ।
अपना सच्चा साथी तट है, ऐसा हमें प्रबोध हुआ॥3॥

लहर में जाना ठीक, मगर-
निकलने की आदत भी हो।
लहर में आकर्षण इतना,
लहर में फँसने का भय है।
रह तटस्थ मूल्याँकन कर तू, मन का यह अनुरोध हुआ॥4॥

रचयिता: अशोक सिंह 'सत्यवीर'
(कोवलम बीच तिरुअनंतपुरम, अप्रैल 2007)

{ गीत संग्रह 'स्वर लहरी यह नयी- नयी है' से }

🌷**हमको तो इक भाया **🌷

🌱*हमको तो इक भाया*🌱

🌱तैयार नहीं थे हम, तूफान मगर आया।
घबराये नहीं कुछ भी, गम की न कहीं छाया॥1॥🌱

🌱कश्ती ने साथ दिया, मस्ती ने साथ दिया।
नजरों में बसा था पिया, हर पल जिसका साया॥2॥🌱

🌱दिल की दीवारों पर, इतना सा ही लिखकर;
हैं दूर नहीं उससे, हैं इक, बस दो काया॥3॥🌱

🌱कितने भौंरों की बात करें, कितने गुलशन की बात करें?
फेहरिश्त बड़ी लम्बी, हमको तो इक भाया॥4॥🌱

.... (कोचीन बन्दरगाह पर, अप्रैल-2007 में)
🍃अशोक सिंह सत्यवीर'🍃
{गजल संग्रह-'मछली पर रेत, रेत में गुल' से}

Tuesday, May 17, 2016

🌺दीवानों की क्या पहचान?🌺


🌱दुनिया का दस्तूर पुराना,
करती है हलकान।
वो देकर इल्ज़ाम पूछती,
दीवानों की क्या पहचान?1॥🌱

🌱सूना गुलशन, गुल मुरझाये,
भौंरे में इक हूक उठी।
दीवानी छायी तब दिल में,
लगती दुनिया लुटी-लुटी।
बेहोशी में सोच रहा है, हो जाऊँ कुर्बान॥2॥🌱

🌱कुर्बानी हल नहीं इश्क की,
आँखों में बरसात।
दीवाना मंजूर करे पर,
हरदम अपनी मात।
मना रहा दिलवर को, उसमें जग न सका अभिमान॥3॥🌱

🌱जो भी उसको दर्द मिले,
वो करता उसे कुबूल।
दिलवर की बातों में खोया,
ख़ुद के नहीं उसूल।
सभी उलझनें स्वीकारे, या हो जाये कुर्बान॥ 4॥🌱

🌱उठा एक तूफान जिग़र में,
वादों की बौछार हुई।
कसमों पर कसमें खायीं तब,
आँखें भी दो-चार हुईं ।
उतर गया तूफान अन्त में, वो निकले नादान॥5॥🌱

🌱'सत्यवीर' सब देख कह रहे,
दिल को देखो उसे सुधारो।
कल की बातें कल ही जाने,
पहले अपना आज सँवारो।
सुधर गया ग़र आज, मिलेगा दीवानेपन को सम्मान॥6॥🌱

🌷🌿अशोक सिंह 🌿सत्यवीर🌿🌷

[पुस्तक-  🌴मछली पर रेत और रेत में गुल🌴]

मोबाइल नंबर  - ०८३०३४०६७३८

🌱एक झलक पाकर दिलवर की🌱

🍁दिल में जब उभरे सूनापन,
औ फूलों में काँटें छाऐं।
एक झलक पाकर दिलवर की,
आँखों में उभरी आशाएं ॥1॥🍁

🍁खुदा आज जब खुद से आकर,
देता दरवाजे पर दस्तक़;
तब खुद की कमज़ोरी से डर,
रश्मों पर आरोप लगाऐं॥2॥🍁

🍁ऊँच-नीच खुद में रखकरके,
परेशान होते हैं हरदम;
पर जब भेद खतम से लगते,
तब असमंजश ख़ुद में पाऐं॥3॥🍁

🍁समझदार कहते हैं ख़ुद को,
पर न कहें खुलकर कुछ भी;
ज़ज़्बातों से ज़ज़्बातों को,
हलचल दे गायब हो जाऐं॥4॥🍁

🍁शिकायतें ही भरीं मगज़ में,
जबकि बहुत प्यारे हैं वो;
जिन घावों से खुद तड़पे हैं,
आज वही मुझको दे जाऐं॥5॥🍁

🍁'सत्यवीर' वे मीठे इतने,
कैसे करें शिकायत हम?
खुदा करे गम हम पा जाऐं,
वो मेरी सब खुशियाँ पाऐं॥6॥🍁

अशोक सिंह 🍀सत्यवीर 🍀
{गजल संग्रह -'🌹मछली पर रेत और रेत में गुल'🌹 से}

Monday, May 16, 2016

🌺यथार्थोपनिषद 🌺

परमात्मा की बारम्बार अन्तस्प्रेरणा के फलस्वरूप एक दीर्घकालिक गहरी साधना की देन है **यथार्थोपनिषद**॥ प्रथम बार संस्कृत के बजाए हिन्दी में अवतरित हुआ कोई उपनिषद ----
ॐॐॐॐ
🌱अन्तस्तल का स्रोत प्रस्फुटित,
अविकारी सिद्धाँत बहे।
प्रियतम सद्गुरु की अनुकम्पा ,
से यथार्थ आकार गहे॥🌱

🌱मरुतम जगती की मादक गति,
किन्तु फूटते कुछ कासार।
यथारूप सब भेद दृष्टिगत,
शून्य घोष का मोद अपार॥🌱

🌱उत्स स्वयं नित प्रकट भूमि पर,
किस समास पर उर इतराये?
'सत्यवीर' नि:शब्द नाद में,
शून्य मोद अब गरिमा ,पाये॥🌱

(प्रथम अनुवाक्, प्रथमोऽध्याय, यथार्थोपनिषद)
अशोक सिंह 🌷सत्यवीर'🌷

Sunday, May 15, 2016

🍁किसको गीत सुनाऊँ मैं ?🍁


🌺किसको गीत सुनाऊँ मैं?🌺

🍃मधुर बाँसुरी बजे हृदय में,
कैसी प्रीत बताऊँ मैं?
किसको गीत सुनाऊँ मैं? 1.🍃

🍃बिछुड़ गये कब, दो दिल किस पल?
स्मृति में छाये मधुरिम पल।
प्राण टिके जाने किसके बल?
कैसा मीत बताऊँ मैं? 2.🍃

🍃परिचय हुआ अचानक पिय से,
लगा कि सदियों से परिचित हैं ।
अनजानी छलना मुसकायी,
मेरे प्रिय मन में अंकित हैं ।
आँखों में दीवाने बादल,
हुए अतीत कहाऊँ मैं ॥3॥🍃

🍃उधर बजे मोहिनी बाँसुरी,
इधर राधिका है अब आकुल।
मर्यादा अब भी मुस्काये,
हृदय रागिनी है अब व्याकुल।
निठुर नियति का खेल कहूँ क्या?
कैसी रीति बताऊँ मैं? 4॥🍃

🍃'सत्यवीर' आह्वान हृदय का,
बाहर की विधियाँ क्या जाने!
मुग्ध प्यास पर अर्पित सब कुछ,
कैसा नियम हृदय पहिचाने?
वणिक बुद्धि असफल इस तट पर,
सच्ची नीति बताऊँ मैं ॥5॥🍃

🌷अशोक सिंह 'सत्यवीर'🌷'
[गीत संग्रह-'पहरे तब मुस्काते हैं ']

Saturday, May 14, 2016

* शंकर तब विषपान करें *

विषय- ग्रसित,स्थूल लाभ-हित, पक्ष सभी जब प्राणहरेें।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करें॥1॥

अकट हलाहल मंथन का फल,
भीत- गीत प्रत्येक अधर पर।
भोग- पार का वासी ही,
इस पल का है नित उत्तम- उत्तर।

स्मित मुख, अविभेद सहजता धर, किसका आह्वान करें?
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करें॥2॥

प्रथम चरण में मुख में लेकर,
पूर्व- वपित असहजता झेली।
लिया कण्ठ में धार अकट विष,
अनुश्रुतियों से पारी खेली।
भीष्म- घात अभिपचित दशा में, दग्ध- दशा का भान हरें।
हेतुरहित, अविरल अनीहवत्‌ शंकर तब विषपान करें॥3॥

यह विष की अनजान दग्धता,
आकुल करे समस्त अभार।
गरल-पान, प्रत्यूह- भीति हित,
रचता अभिनय का विस्तार।

जब विवेक पर ग्रहण- रूप विष, सम्मोहित सम-सार करे।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करें॥4॥

भुक्ति- मुक्ति पर शब्द न जन्मे,
शून्य दिशा में अटकी दृष्टि।
क्या मुस्कान? शोध कर जानो,
खिले हृदय, क्या अघटित वृष्टि?

व्याख्यायित क्षमता हारे जब, असहज पत का मान मरे।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करें॥5॥

'सत्यवीर' मन्थन का साक्षी,
अमृत का बल मृत का मूल।
घटो! स्यात्‌ घट में जा पाओ,
इक प्रकाश में लय सब शूल।

विघटन पर निश्चलता टूटे, दग्ध कण्ठ पर गान मरे।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करें॥6॥

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}

Friday, May 13, 2016

🍁काँटों पर तू चलना सीख🍁

🌿काँटों पर तू चलना सीख॥1॥🌿

🌿पुष्प खिलेंगे तभी चलेंगे।
नियति रचेगी तभी मिलेंगे।
कोई तो बतलाए,होगा कब-
प्रभात औ पुष्प खिलेंगे।🌿

🌿भीरु-मना ही ऐसा कहते,
और माँगते भीख।
काँटों पर तू चलना सीख॥2॥🌿

🌿नित नवीन संकल्प सृजित कर,
तू क्यों करता उनको भंग?
मन में कल्पित चिंता लेकर,
नहीं कभी चढ़ सकता श्रृँग।🌿

🌿निर्णय एक सोचकर ले तू ,
बढ़ जा उस पर सदा अभीक।
काँटों पर तू चलना सीख॥3॥🌿

🌿जग क्या कहता? मन क्या कहता?
क्षमता कितनी! चिंतित रहता।
इसी जगत में कितने हँसते,
पर, तू किस सागर में बहता?🌿

🌿व्यर्थ न जाने दे इस पल को,
अब तो कर जा तू कुछ ठीक।
काँटों पर तू चलना सीख॥4॥🌿

🌿उर की अभिलाषा पहचानो,
और समय की महिमा जानो।
एक श्रेय-पथ चुनो, और-
मानव से सम्भव सब, मानो।🌿

🌿छोड़ पुरातन गाथाऐं,
रच कालजयी इक लीक।
काँटों पर तू चलना सीख॥5॥🌿

🌱रचयिता- 🌱अशोक सिंह 'सत्यवीर'🌱
{मूल कविता संग्रह- 🌿चैतन्य तृण🌿}