Ashok Singh Satyaveer

Saturday, May 14, 2016

* शंकर तब विषपान करें *

विषय- ग्रसित,स्थूल लाभ-हित, पक्ष सभी जब प्राणहरेें।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करें॥1॥

अकट हलाहल मंथन का फल,
भीत- गीत प्रत्येक अधर पर।
भोग- पार का वासी ही,
इस पल का है नित उत्तम- उत्तर।

स्मित मुख, अविभेद सहजता धर, किसका आह्वान करें?
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करें॥2॥

प्रथम चरण में मुख में लेकर,
पूर्व- वपित असहजता झेली।
लिया कण्ठ में धार अकट विष,
अनुश्रुतियों से पारी खेली।
भीष्म- घात अभिपचित दशा में, दग्ध- दशा का भान हरें।
हेतुरहित, अविरल अनीहवत्‌ शंकर तब विषपान करें॥3॥

यह विष की अनजान दग्धता,
आकुल करे समस्त अभार।
गरल-पान, प्रत्यूह- भीति हित,
रचता अभिनय का विस्तार।

जब विवेक पर ग्रहण- रूप विष, सम्मोहित सम-सार करे।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करें॥4॥

भुक्ति- मुक्ति पर शब्द न जन्मे,
शून्य दिशा में अटकी दृष्टि।
क्या मुस्कान? शोध कर जानो,
खिले हृदय, क्या अघटित वृष्टि?

व्याख्यायित क्षमता हारे जब, असहज पत का मान मरे।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करें॥5॥

'सत्यवीर' मन्थन का साक्षी,
अमृत का बल मृत का मूल।
घटो! स्यात्‌ घट में जा पाओ,
इक प्रकाश में लय सब शूल।

विघटन पर निश्चलता टूटे, दग्ध कण्ठ पर गान मरे।
हेतुसिद्ध, अविरल अनीहवत्‌, शंकर तब विषपान करें॥6॥

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक: 'पथ को मोड़ देख निज पिय को' से}

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