Ashok Singh Satyaveer

Thursday, July 21, 2016

मन की कौन थकान हरे?

मन की कौन थकान हरे?
अपनी ही सुधि नहीं किसी को,
नभ में कहाँ उड़ान भरे?
मन की कौन थकान हरे?।।१।।

नित-प्रति की आपाधापी में,
अपनी उलझन के मंथन में ।
बीत रहे मधुमास अधूरे,
अनजाने मन के गुण्ठन में ।

अपनी पीड़ा से आकुल जब,
सुमनकुंज श्मशान करे।
मन की कौन थकान हरे।।२।।

बदली में लुक-छिप जाते हैं,
चन्दा भी औ सूरज भी।
पथराई आँखों से देखूँ,
छूट रहा अब धीरज भी।

अपने पथ का पथिक अचंभित,
पथ कैसे आसान करे?
मन की कौन थकान हरे?।।३।।

विरलों की मति में आता सच,
जीवन इक मधुशाला है।
तुम पीते-पीते थक जाओ,
भरा रहे पर प्याला है।

लेकिन जब ले प्रबल शिकायत,
जीवन का अपमान करे।
मन की कौन थकान हरे?।।४।।

>>> अशोक सिंह 'सत्यवीर'[ Thinker, Ecologist and Geographer]
{ गीत संग्रह - "पहरे तब मुस्काते हैँ"}

Tuesday, July 19, 2016

* बिजूका *


"बिजूका"

रम्मू की मटर की खेती खतरे में थी,
शाम गहराते ही समा जाता था एक अनजाना सा भय रम्मू के दिल में;
किसी पल किसी दिशा से नीलगायों की एक फौज के हमला बोलने का बना रहता अंदेशा।
अपनी फसल बचाने को रम्मू को सूझी एक तरकीब-
क्यों न नीलगायों को धोखा देने के लिए एक 'धोखा' खड़ा किया जाये खेत में;
अरे वही धोखा, जिसे बिजूका कहा जाता है ना;
सरकण्डे के डंड़ों को,
एक मानवीय आकृति में बाँधकर एक कपड़ा पहना दिया जाता है;
रात में दूर से बिजूका देखकर एक आदमी के खड़े होने का हो जाता है भ्रम और इसी भ्रम में रात के वक्त रहते हैं दूर जानवर खेत से।
खैर, जैसे-तैसे
साल दर साल बिजूका खड़ा कर जानवरों से खेती की रक्षा करने का होता रहा प्रयत्न;
और कुछ हद तक कामयाब भी रहा।
...   ...
इस साल रम्मू ने अपने खेतों के चारों ओर लगा दिए हैं कँटीले तार;
अब बिजूके की नहीं रही जरूरत।
किसी की सलाह पर रम्मू ने कँटीले तारों में दौड़ा दी बिजली,
और रात के वक्त दो नीलगाय मर गये कँटीले तार में दौड़ती बिजली से;
ऐसे में रम्मू के अपने बिजूका तकनीक की आती है याद बार बार,
और उसकी आँखों से गिर पड़ते हैं आँसू दो-चार।

>>> अशोक सिंह 'सत्यवीर'
काव्य संग्रह - "कुछ टेसू जो नजर न आये"

Sunday, July 17, 2016

Friday, July 15, 2016

** And...... India Is Great **

Ashok Singh Satyaveer
पश्चिम की सभ्यता की हमेशा हम निंदा करते हैं और उसे भोगवादी सभ्यता कहकर उसका उपहास करते हैं । जरा ग़ौर करिए --
1• हम एक दूसरे की टांग खींच रहे हैं जबकि वे अपना काम कर रहे हैं।
2• हममें जातिवाद जैसे कोढ कूट-कूट कर भरे हैं जबकि उनमें व्यक्ति की योग्यता को महत्व दिया जाता है ।
3• एक व्यक्ति को चोट लग जाय या गिर जाय तो उसे हमसे पहले एक पश्चिमी व्यक्ति सहायता देने को तैयार होगा ।
4• हमने पूरे देश को कूड़ेदान बना रखा है और पश्चिम के देश का हर नागरिक हर स्थान के प्रति स्वच्छता की दृष्टि से जागरुक मिलेगा ।
5• हमारी सड़क कब बनती है और कब टूट-फूट जाती है कौन कह सकता है? परंतु पश्चिम की सड़क ईमानदारी से बनायी जाती है जो जल्दी नहीं टूटती है।
6• हम पानी जैसे प्राकृतिक अवदानों के प्रति लापरवाह हैं । यदि पानी की टोंटी लीक कर रही है तो उसे ठीक कराने और पानी बचाने के लिए एक पश्चिमी व्यक्ति बहुत आकुल दिखेगा। हमारे तो कहने ही क्या? अपनी सड़क और गाड़ी धोने में हजारों लीटर जल बर्बाद करदेते हैं ।
7• हमारे यहां दान का बड़ा महत्व है भीख मांगने वाले और प्रवचन से पैसा एकत्र करने वाले आध्यात्मिक कहलाते हैं और अनाज और पैसा पैदा करने और देने वाला भौतिक कहलाता है । यहाँ दूसरों से लेना, मांगना आध्यात्मिक कार्य है और अपने श्रम से कमाना और उत्पादन करना भौतिक कार्य है। इसीलिए पश्चिमी देशों से कर्ज लेने वाले, अस्त्र-शस्त्र लेने वाले, सहायता की भीख मांगने वाले हम अभी भी विश्वगुरू हैं आध्यात्मिक हैं जबकि हमारी मदद करने वाले, लाखों भारतवंशियों को रोजगार देने वाले पश्चिमी देश भौतिक हैं ।
शेष फिर ...... [ translated from the book - "And......India is Great" ]
Ashok Singh Satyaveer

Thursday, June 9, 2016

जिन्दगी एक राज है

ज़िन्दगी एक राज़ है अन्दाज़ निराले,
है बदलती रुख इस कदर,
कब, कौन सँभाले?
जब जोर नहीं चल सके
इस पर कि ज़रा सा,
ख़ुद को करो पूरी तरह से इसके हवाले।।१।।

तुम ज़िन्दगी से हारकर,
न होना कभी नाराज़,
मौसम सरीखी जिन्दगी,
संग बदलकर अन्दाज़।
मग़रूर रहो या कि हो-मशहूर ओ ज़नाब;
सीखो मगर अब तुम,
करो जिससे कि ख़ुद पर नाज़।।२।।

हिम्मत से अग़र डट गये,
रास्ते पे शान से,
बदलेगी फ़िज़ा दोस्त मेरे मुस्कुराओगे।
मुस्किल ख़तम हो जायेगी मसले करोगे हल;
किस्मत बदल जायेगी,
औ मंजिल को पाओगे।।३।।

मज़बूत दिल से हौसले-
रख़, चलो 'सत्यवीर',
कुदरत ने सभी को,
बना भेजा यहाँ अमीर।
मस्ती रहे कायम हमेशा,
होश में रहो;
बेख़ौफ हो अब तो चलाओ दोस्त मेरे तीर।।४।।

अशोक सिंह सत्यवीर
[गज़ल संग्रह- मछली पर रेत और रेत में गुल]

*कौन कर सकता यहां पर*

कौन कर सकता यहाँ पर,
शक्ल से पहचान?
अप्सरा का रूप धरकर,
आ रहे मेहमान।।१।।

जहर दिल में छुपाकरके
हो रहे हलकान।
कौन जाने किस घड़ी,
चेहरा दिखे भगवान?।।२।।

मोहिनी सूरत लिए और,
जुबाँ कोयल की,
क्या कभी कौव्वा छुपा-
पाया असल पहचान?।।३।।

जरा रुककर देख लो,
'यह कौन है इन्सान?'
कर भरोसा फ़ँस गये,
'क्या उबरना आसान?'।।४।।

बहुत अच्छे हैं कई,
पर पेश हो पाते नहीं ।
पेश होना कला है,
कुछ हैं कि कह पाते नहीं।।५।।

'सत्यवीर' ठगे गये,
ग़र बह गये ज़ज्बात में ।
जेब कटते देर क्या?
बस एक मुलकात में ॥6॥

>>>अशोक सिंह सत्यवीर
[From collection- मछली पर रेत और रेत में गुल]

** सहज हैं सब चढ़ाव-उतार **

ज़िन्दगी का है यही एहसान
बदलने का लय सिखाती है।
बदलता मौसम यही कहता
जड़ बनी गति जंग खाती है।।1।।

जहाँ तक है बात छल की तो,
वो हमारे हृदय में बैठा।
उठ रहा जो प्रकृति का आवेग,
अहं माने नहीं, बस ऐंठा।।2।।

बदलते सब रंग लो स्वीकार,
जिन्दगी से जता दो आभार।
'सत्यवीर' सुबुद्धि कहलाती,
स्वप्न हो जाते सभी साकार।।3।।

प्रेरणा देती बदलती जिंदगी,
जड़ बनो मत, औ न मानो हार।
'सत्यवीर' कैसा विचित्र प्रहार,
सहज हैं ये सब चढ़ाव-उतार।।4।।

>अशोक सिंह सत्यवीर
[पुस्तक - यह भी जग का ही स्वर है, Page-63]

** बचपन की यादों पर पहरे **

बदली दुनिया लगा रही है,
बचपन की यादों पर पहरे।
जिन यादों में छुपे हुए हैं
प्रेरक शब्द, अर्थ ले गहरे।।1।।

चतुर बन गये जब से हम सब,
मुखड़ों से बिछुड़ीं मुस्कानें।
बेशर्मी से करें शिकायत,
देते हैं दुनिया को ताने।।2।।

फिर से दें आवाज आज,
फिर कहावतें वे बचपन की।
धन्यवाद मेरे प्रिय मित्रों ,
आज मिली सुधि उस धन की।।3।।

अशोक सिंह सत्यवीर

** विद्रोही संसार भरो **

यदि अपने ठंडे दिमाग से,
सोचें तो सच दिखता है।
सच्चाई पर पहरे लगते,
झूठ हमेशा बिकता है।।1।।

बात कहीं से शुरू हो कि,
हो किसी बिन्दु पर बात खतम।
मर्यादा को ढाल बनाकर,
दिल की बात दबाते हम।।2।।

घर, समाज की मर्यादा पर,
इच्छाऐं करते बलिदान।
बातें कितनी ऊँची करते,
किन्तु करें खुद का अपमान॥3।।

छोटी सी जो मिली जिन्दगी,
उस पर कितना भार रखा।
रस्में तो निभ गयीं किन्तु,
क्या कभी हृदय को भी परखा?4।।

जिस समाज की परंपरा ने,
जीवन को खिलने न दिया।
मिले हृदय, इच्छा मुस्कायी,
सच में पर मिलने न दिया।।5।।

उसको मिली चुनौती जब से,
तब जन को सम्मान मिला।
हिचक तोड़कर कदम बढ़ाया,
तब खुद का अभिमान खिला।।6।।

जितने जन आज्ञाकारी थे,
उनमें कुछ बदलाव न था।
मात, पिता, गुरु, कुल की चिन्ता थी,
पर सच्चा भाव न था।।7।।

मात पिता का कष्ट सोचने ,
वालों में थी क्रान्ति कहाँ?
उनका ऋण उतारने की बस,
व्याप्त रही इक भ्रान्ति वहाँ।।8।।

राम,कृष्ण, गौतम, नानक,
ज्योतिबा फुले ने कथा रची।
अम्बेदकर, भगत सिंह,
बिबेकानंद में व्यथा बची।।9।।

जिनके कारण आज साथ हमने,
जो दिल से बात किया।
प्यार उभर आया जो दिल में,
और हृदय में साथ दिया।।10।।

जिन लोगों ने समानता के,
लिए आत्म बलिदान किया।
मात-पिता थे दु:खी सभी के,
किन्तु देश ने मान दिया।।11।।

यदि कुरीति का करें समर्थन,
मात-पिता, परिवार, समाज।
उनके मन की बात तोड़कर,
उठ जाये यदि जन-मन आज।।12।।

तो परिवर्तन की शुभ धारा,
आगे बढ़ती जायेगी।
भारत माँ की संतानों में,
नूतन गरिमा आयेगी॥13॥

'सत्यवीर' अब हृदय खोलकर,
प्यार भरा व्यवहार करो।
स्वाभिमान की शुभ रक्षा हित,
विद्रोही संसार भरो ।।14।।

[पुस्तक- बात अभी बाकी है]

गाँव - गाँव में रौनक लायी भोर


मुस्काये किसलयदल, गगन विभोर,
गाँव-गाँव में रौनक लायी भोर।।१।।

सूरज उगा और नुक्कड़ पर,
सूरज ने दृकान लगायी।
चाय, समोसे और जलेबी,
की प्यारी सी खुशबू आयी।
मुर्गा कहता "उठ हे बिरजू, अब मत खीश निपोर।"
गाँव-गाँव में रौनक लायी भोर।।२।।

शंकर मास्टर नहा रहे हैं,
जाना है विद्यालय।
श्यामू पाँड़े पत्रा बाँचें,
मिश्रा चले शिवालय।
मुँह में ले दातून रामधन, खाना रहा अगोर।
गाँव गाँव में रौनक लायी भोर।।३।।

जैसे बिल्ली खिसियाने पर,
खंभा नोचे जाय।
दूध न पाकर करे पिटायी,
लौटू अपनी गाय।
प्रेमू लेकर छोटी मौनी, महुआ रहा बटोर।
गाँव-गाँव में रौनक लायी भोर।।४।।

भुल्लुर काका जोर-जोर से,
गाँवैं दोहा औ चौपाई।
राधा बूआ द्वार बुहारें,
औ नातिन की करें बड़ाई।
छब्बू इक्का ठीक कर रहे, घोड़ा करे बरोर।
गाँव गाँव में रौनक लायी भोर।।५।।

खेतों में हलचल उभरी है,
आलू की हो रही खुदायी।
औ गन्ने को काट-काट कर,
करें आदमी तेज गँड़ाई।
ट्रैक्टर-ट्राली ले छोटकन्नू,
चले खेत की ओर।
गाँव-गाँव में रौनक लायी भोर।।६।।

मस्जिद में अजान इत गूँजे,
उत मंदिर में भजन बजे।
राम-रहीम बसें हर दिल में,
कौन अभागा ना समझे?
पत्ते हिलते आम-नीम के, अनुचित देर बहोर।
गाँव गाँव में रौनक लायी भोर।।७।।

'सत्यवीर' दुनिया गाँवों की,
डूबी खुद के प्यार में ।
गौर करो तो खो जाओगे,
गाँवों के संसार में ।
भारत का हर गाँव अनूठा, कहे आज पुरजोर।
गाँव-गाँव में रौनक लायी भोर॥8॥

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
[पुस्तक-कुछ सौरभ बिखरा बिखरा सा]

** बाल प्रकृति में भरी मिठास **

अशोक सिँह
भरा हृदय में यह विश्वास,
बालप्रकृति में भरी मिठास।
मधुर दृश्य में हम खो जाते,
जब बच्चे होते हैं पास॥1॥

पृथक-पृथक भूमिका चयन कर,
बच्चे नित करते हैं अभिनय।
अपनी दुनिया में खो जाते,
सुधि न उन्हें, ऐसे हों तन्मय॥2॥

कभी-कभी गुड़िया की शादी,
कभी खिलौने लेकर खेलें।
आँख-मिचौली कभी खेलते,
यह सुख दें कब जग की मेले?3॥

कभी-कभी वे मात-पिता सम,
लघु कालिक मर्यादा धारें ।
हो प्रफुल्ल हम सब यह देखें,
पल में हों, दु:ख दूर हमारे॥4॥

कभी-कभी बंदूक माँग लें,
कभी-कभी लेकर पिचकारी।
धूम मचाते, मुग्ध भाव में-
देखें पिता और महतारी॥5॥

कहें "सुनाओ एक कहानी,
परीकथा या राजा-रानी"।
देवदूत आकर तब देखे,
बच्चों की प्यारी मनमानी॥6॥

"सत्यवीर" अब 'सुधि' में बाकी,
हैं उन बचपन की सब यादें ।
जब गुस्सा होकर करते हम,
मम्मी-पापा से फरियादें ॥7॥

वो प्यारी सुगंधि अब लौटी,
जब बेटी फिर से अब मचली।
जिद अब जिद की याद दिलाऐ,
मेरी सब कड़वाहट पिघली॥8॥

अशोक सिंह सत्यवीर [पुस्तक -¤कुछ सौरभ विखरा-विखरा सा¤ पृष्ठ संख्या-13]

आँखों में वह लगन कहाँ?


आँखों में वह लगन कहाँ?

मिलता है सम्मान जगत में, किन्तु प्यार की चुभन कहाँ?
स्वागत को तैयार सभी, पर आँखों में वह लगन कहाँ?॥1॥

जब मेरे कदमों में दुनिया,
फूल बिछाये जाती है।
वैभव पर मँडराती तितली,
रस लेकर उड़ जाती है।
ऐसे में, मन के सूने आँगन में, हूक उठेगी ही;
पीड़ा तो भरती नित उर में, किन्तु करें कुछ वमन कहाँ?॥2॥

बारिश की बूँदें जब गिरतीं,
मन में भाव अगाध भरे।
अलसाई आँखों में जगते,
फिर से सपने हुऐ हरे।
उगतीं अगणित आशामणियाँ, पीड़ा पर करतीं नर्तन;
पथ तो दिखें अनेक, प्रश्न है 'किन्तु करें हम गमन कहाँ?'॥3॥

ऋद्धि-सिद्धि पर झुकने को,
आतुर जगती के कदम सदा।
भाँप न पायें किन्तु, क्रमिक-
गति से आती मादक विपदा।
सोने पर सोने की करते, रात दिवस तैयारी सब;
दौड़ लगी सबमें बढ़ने की, किन्तु दिखे कुछ अमन कहाँ?॥4॥

अधरों की मुस्कान, न जाने-
किन भावों पर क्रीत रही।
मृदुल उलाहन की आहट पर,
भ्रमरों पर क्या बीत रही?
गीत रहित अधरों की भाषा में, कुछ तो उन्माद भरा;
'सत्यवीर' क्या मौन निमन्त्रण! छुप सकता है गगन कहाँ?॥5॥

अशोक सिंह 'सत्यवीर' { सद्य: प्रकाशित पुस्तक-'इक पावस ऋतुओं भारी'}

Tuesday, June 7, 2016

** Basic causes of sexual abusing **

Basic causes of sexual abusing eg., rape-

(1)lack of ethical as well as moral education,
(2)Unhealthy and vicious environment with respect to the cultural values,
(3)Slow and lengthy judicial process,
(4)Social and political accepatance at some rate in any ways,
(5)Lack of awakening and lack of sensitivity among common people,
(6)Political unwillingness or lack of political will power against ill happenings of such type,
(7)Adverse impact of vulgurous cinematographical presentations as well as of visualmedia,
(8)Fast growing vulgarity through the cyberworld,
(9)Growing alcoholic behaviour among youth,
(10)Lack of sufficient hard laws to punish the abusers,
(11)Ignorance of eve-teasing by the society.

-Ashok Singh Satyaveer

Friday, June 3, 2016

** इश्क का मोहताज खुद में इश्क है **

रोग में आनंद मिलता, रक्खा क्या इलाज में?
मूल की अब क्या जरूरत, जब फायदा है ब्याज में?1॥

चल रही जब तक, कि हलचल इश्क की, दौर वह अनमोल, उसमें डूब।
फिर न जाने कब, मिले अहसास वह, धड़कनों को पढ़, न उससे ऊब॥2॥

'सत्यवीर' इलाज- खुद में इश्क है, तजुर्बों का ताज, खुद में इश्क है।
कर रहा अब भी, वफा का इंतजार, इश्क का मोहताज, खुद में इश्क है॥3॥

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
[गजल संग्रह : *मछली पर रेत और रेत में गुल*]

**जब किसी की बाग में खिलता है इश्क**


खुद-बखुद जो घट रहा, है इश्क वह एहसास।

सुलझने में क्या रखा है? उलझना ही खास॥1॥

इश्क होना पाक है, यह खुद में इक तमीज़ है।

देखकर सूरत कहें बेताब वे, करोड़ों में 'एक' किन्तु अज़ीज है॥2॥

हजारों अच्छे करम जब बीतते, तब कहीं से इश्क की चलती बयार।
पाक करती रूह को, देती शिकस्त, धड़कनें थमतीं झरे दिल में फुहार॥3॥

सब रवायत और मजहब टूटते, रस्म बेगानी बने इस इश्क में ।
किन्तु रिश्ते, रस्म, मजहब, से बड़ी चीज़ कुछ मिलती हमें इस इश्क में ॥3॥

'सत्यवीर' खुदा सँभाले इश्क को, करोड़ों में एक को मिलता है इश्क।
खुशनशीबी से इबादत पाक हो, जब किसी की बाग में खिलता है इश्क॥5॥

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
(गजल संग्रह -'मछली पर रेत और रेत में गुल' page-29)

** क्या है जीवन? **


बार बार इक प्रश्न सुनें हम, क्या है जीवन?
और हृदय में यही गुनें हम, क्या है जीवन?।।१।।

जन्म लिया, फिर छोड़ दिया तन, क्या है जीवन?
दूर हुए या जोड़ लिया मन,
क्या है जीवन?।।2।।

दु:ख अपनायें, सुखहित धायें, क्या है जीवन?
हारें या खुद को समझायें, क्या है जीवन?।।3।।

फिक्र छोड़ दें, हृदय जोड़ दें, क्या है जीवन?
कटु रिश्तों को सहज तोड़ दें, क्या है जीवन?।।4।।

परम्पराऐं सहज निभाऐं,
क्या है जीवन?
या अपना आदर्श बनाऐं,
क्या है जीवन?।।5।।

अब मन में निष्कर्ष आ रहा, क्या है जीवन?
गलत किया जो त्रास नित सहा, क्या है जीवन?6।।

सच में हृदय पुकार उठाऐ, क्या है जीवन?
उसी हेतु सब नियम बनाए,
क्या है जीवन?।।7।।

आकुल है इक भाव हृदय में, कोशिश करे व्यक्त होने की।
उसी भाव को शब्द दे सके,
और जी सके, वह है जीवन।।8।।

सहज बोध दे, मधुरिम चेष्टा, और चैन जब-जब पाये मन।
तब-तब समझो देता दस्तक,
निकट मनुज के उसका जीवन॥9।।

'सत्यवीर' आकंठ भरा है, रसवाही मधुरिम नित जीवन।
किससे करें शिकायत मुझ पर, स्वयँ आज है अर्पित जीवन।।10।।

[BOOK- यह भी जग का ही स्वर है]

दिलवर का अब पता मिला

पूरी ग़जल-

शिकायतों के इन लफ्जों में,
दिखती मन की मधुर लगन।
जाने की दर्दीली बातें,
प्यार दिखाऐ धुन में मन।।१।।

जाने की अब नहीं जरूरत,
क्योंकि हुए ज़ाहिर ज़ज़्बात।
फूलों में संदेश छुपा जो,
पढ़ो उसे निभ जाये बात।।२।।

घबराहट अब विदा हो चुकी,
मन की मुश्किल है अब हल।
अपनेपन की खबर मिल गयी,
अब तो होगा अच्छा कल।।३।।

दिल में अब दीदार हो रहा,
दिलवर का अब पता मिला।
अँगड़ाई की रस्म कह रही,
सूनेपन में फूल खिला।।४।।

'सत्यवीर' अब उसी दर्द में,
प्रीतम की ख़ुशबू पायी।
बेग़ानी दुनिया है पर अब,
काँटों में मस्ती पायी।।५।।

[ग़ज़ल संग्रह- 'मछली पर रेत और रेत में गुल' से]
(गायिका : रत्ना लोचन)

** नयी सुबह में साहस पाएं **

पावन तृषा उठी जब मन में,
शुभाशीष की ध्वनियाँ आयें।
मनोदोष की होम-प्रविधि का,
वर्णन करतीं दिव्य ऋचाऐं॥1॥

वीरप्रसू है यह वसुंधरा,
रुधिर गर्व से भरा हुआ।
गरिमा के शुभ स्थापन पर,
मातृभाव कुछ खरा हुआ॥2॥

मधुर नाद अब गुंजित नभ में,
तम बीता आलोक पुकारे।
प्रात: की अरुणाभ उषा में,
कल-कल करते खगकुल सारे॥3॥

अब नूतन संकल्प लिए हम,
अपने पथ पर बढ़ते जाऐं।
श्रम का शुभ परिणाम मिलेगा,
नयी सुबह में साहस पायें॥4॥

*काव्यकृति -** कुछ सौरभ बिखरा बिखरा सा **)

रचनाकार -अशोक  सिंह "सत्यवीर"

Saturday, May 28, 2016

भारतीय संत परंपरा *सहजोबाई*

मुक्‍त पुरूषों पर बोलना आसान है। उन्‍हें मैं समझ सकता हूं-वे सजातीय है। मुक्‍त नारी पर बोलना थोड़ा कठिन है। वह थोड़ा अंजान, अजनबी रस्‍ता है। ऐसे तो पुरूष ओर नारी अंतरतम में एक ही है। लेकिन उनकी अभिव्यक्ति बड़ी भिन्‍न-भिन्‍न है। उनके होने का ढंग उनके दिखाई पड़ने की व्‍यवस्‍था उनका व्‍यक्‍तित्‍व उनके सोचने की प्रक्रिया, न केवल भिन्‍न है बल्‍कि विपरीत भी है।
      अब तक किसी मुक्‍त नारी पर न बोला। सोचा तुम थोड़ा मुक्‍त पुरूषों को समझ लो। तुम थोड़ा मुक्‍ति का स्‍वाद ले लो। तो मुक्‍त नारी को समझना थोड़ा आसान हो जाए।
      जैसे सूरज की किरण तो सफेद है। पर प्रिज्म से गुजर कर सात रंगों में टुट जाती है। टूटने से पहले एक थी। मिलने के बाद फिर एक हो जाएगी। बीच में जो बड़ा फासला है रंगों का वह भेद मिटना नहीं चाहिए। भेद सदा बड़ा बना रहे, यहीं उचित ओर ठीक है। बल्‍कि उसी भेद में जीवन का रस है। लाल-लाल हो, हारा-हारा हो, तभी तो हरे वृक्षों में लाल फूल नजर आ सकेगें।
      प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के भीतर दोनों है। पुरूष और भीतर छीपी है। और स्‍त्री ओर स्‍त्री के भीतर छीपी है पुरूष। पुरूष का स्‍वभाव दूर दृष्‍टि है और औरत का स्‍वभाव निकट दृष्‍टि। सहजो के वचन बड़े नास्‍तिक के मालूम पड़ेंगे।
      ‘’राम तंजू पै गुरु न विसारू।‘’
      छोड़ सकती हूं परमात्‍मा को पर गुरू को नहीं छोड़ सकती हूं। मुझे कुछ अड़चन नहीं राम को त्‍याग सकती हूं। लेकिन गुरु को छोड़ना असंभव है। सहजो अकेली स्‍त्री नहीं है जिस पर मैं बोलूगा। पर शुरू आत उससे होती है। क्‍योंकि उसमें स्‍त्री बड़े परिशुद्ध रूप में प्रकट हुई है।
      सहजो को समझना है तो उसके वचनों में गहरे जाना होगा। उसके वचन टकसाल से निकले बिलकुल सीधे-साधे हे। सहजो कोई पंडित तो नहीं है। को ई कवित्रि तो नहीं है। वह छंदों से जीवन से मुक्‍त हे। हां बाँध ले तो उसका बड़ापन होगा। सहजो कोई आडम्बर नहीं करती। बात साफ-साफ कह दी है। कुछ छिपाया नहीं हे। और उस ढंग से कही है जो कभी नहीं कहीं गई। जब परमात्‍मा किसी में उतरता है तो हर बार नये ढंग से उतरता है। पुनरूक्‍ति परमात्‍मा को पसन्‍द नहीं है। इस लिए उधारी का तो कोई उपाय ही नहीं है।
      सहजो का एक-एक पद अनूठा है। शब्‍दों के बीच में खाली जगह को पढ़ना पड़ेगा। पंक्‍तियों के बीच में रिक्‍त स्‍थान को पढ़ना पड़ेगा। वो जो खाली जगह है वह पर्याप्त प्रणाम है। बुद्धत्‍व के वचनों का। लेकिन सहजो के वचनों में खाली जगह का तुम नहीं पढ़ सकोगे। उस के लिए तुम्‍हें अपने अन्‍दर की खाली जगह को पढ़ना आना चाहिए। जिस दिन कोई अपने भीतर की खाली जगह को पढ़ लेता है उसी दिन वह बहार के शब्‍दों की खाली जगह को पढ़ सकता है लिख सकता है।
      सहजो को ऐसा एक गुरु मिल गया जो अंदर से खाली हो गया था। उस के गुरु का नाम चरन दास था। पे बड़े सीधे-साधे आदमी थे। इतने सीधे-साधे की साधारण आदमी उन्‍हें पहचान भी नहीं सकता। वह यह जान ही नहीं सकता की मुझमें इनमें क्‍या भेद है। इतनी सरला और सादगी अभी तक किसी संत में नहीं उतरी। वरना तो जब परमात्‍मा उस में उतरता है। तब वह दूसरा ही हो जाता है। देखा न एक दुल्‍हन को शादी के दिन कैसा रूप चढ़ता है उसे आप लाखों में भी पहचान सकोगे की कोन दुल्‍हन है। एक ही बुद्धत्‍व जब उतरता है तब आदमी दूसरा ही हो जात है। पर चरन दास इतने सरल और सीधे थे की उनमें जरा भी भेद पकड़ न पाओगे। भेद तो पडा पर उसकी छाया बहार आप पकड़ नहीं सकते।
      बह बहुत सीधे थे। बिलकुल सामान्‍य थे। और ध्‍यान रखना सामान्‍य में ही तुम असमान्य की झलक पा लो तभी तुम बचाए जा सकते हो। तभी तुम जाना की कोई करीब भी है दूर भी है। जो कभी-कभी इतने करीब होता है कि तुम्‍हें संदेह होने लगता है कि इसमें ओर हममें भेद क्‍या हे। शायद यह भी तो नहीं डूब जायेगा। तब हम कहां बच पायेंगे।
      चरन दास बड़े सीधे-सरल आदमी थे। उन्‍होंने सहजो को बचाया। इस लिए सहजो उनके गीत गाए चली जा रही हे। वह कहती है हरि को भी त्‍यागना हो तो त्‍याग दूंगी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अरे हमारे गुरु रहे हम हरि को फिर पा लेंगे। पर गुरु को त्याग ना हो तो न त्‍याग सकूंगी। क्‍योंकि हरि ने तो हमें मझधार में डाला, फेंक दिया डूबने के लिए और गुरु ने मझधार से बचाया। हरि ने तो माया में उलझा दिया था हमें और गुरु ने छुडाया है। फिर भला गुरु को कैसे त्‍याग सकती हूं।

     चरन दास का तो किसी को पता ही नहीं चलता। उनकी तो खबर ही नहीं आती। वह कोई तराशे हीरे तो नहीं थे वह तो अनघड़ थे शुद्ध जैसे अभी-अभी खादन से निकले है, उसपर धुल धमास  सब जमा है। उन्‍हें कोन पहचान सकता था। यह तो सहजो की सहजता थी। उनकी पारखी आंखे थी। जो उन पर पड़ी और उनके रंग में रंग गई। और अपने गीतों में गुरु की महिमा गई। उनकी ही बाणी चरन दास की खबर देते है।
      चरन दास की दो शिष्‍यायें थी। एक थी सहजो बाई और दुसरी थी दया बाई। ये  चरन दास की दो आंखें है। जैसे किसी पाखी के दो पंख हो। इन दोनों ने चरण दास के गीत गाए है। तब लोगो को चरन दास की खबर लगी।
      इन दोनों के स्‍वर इतने एक है कह आप दोनों में भेद नहीं कर पाओगे। एक होंगे ही क्‍योंकि एक ही गुरु ने दोनों को बचाया है। एक ही गुरु की छाया दोनों पर पड़ी ही। एक ही गुरु का ह्रदय दोनों में धड़क रहा है। एक ही प्रेम की रस धारा दोनों में प्रवाहित हो रही है। उसी उर्जा ने जीवन नये आयाम दिये उस  बगिया को महकाया है। फूल खिला ये हे। भँवरों न गुंजान की है, रौनक दी ही।
      इस लिए दोनों एक ही प्राण की दो स्‍पंदन है। इस लिए जब में सहजो पर बोल रहा हूं तो इस प्रवचन माला का नाम दिया है—‘’बिन धन परत फुहार’’ ये शब्‍द दया बाई के है। जब दया पर मैं बोलूगा, तो जो श्रंखला का नाम रखा है उसमें शब्‍द सहजो के है—‘’जगत तरैया भोर की’’ जैसे सुबह का डुबता तार अब गया की तब गया। ऐसा ये जगत है। इसलिए दोनों के शब्‍द मैंने – सहजो बाई के लिए दया का शब्‍द उपयोग किया है, दया के लिए सहजो का करूंगा।

Friday, May 20, 2016

🌹Geography of Public Policy🌹

Geography of Public Policy

Preface

🍁What does family mean🍁 -Preface🍁


THINK A LITTLE BIT ABOUT THE SURVIVAL OF LOVE WHAT IS BASIC ASPECT TO FORM A FAMILY

Trust is not natural. It is a sophisticated phenomenon. Trust emerges through the (on the basis of) real actions. It is benefitted from both sides and benefits to the both. All type of morals, ideals and rigidity swallow the love.

The Family is formed with practical relationships, physical, psychological as well as behavioural actions. Have you heard about any type of an ideal that can make a family? Perhaps not. Only a harmony between both husband and wife create a family, passing though a practical action. Then a new phenomenon takes place, what is the base for a trust that bridges them. When an ideal becomes rigid, an irritation takes place, and trusts ends.


How a happy life is formed? Suspicion and trust both are harmful. Only watchfulness is the key. Wherever you go, go with your partner; whatever you do, do together. In Indian tradition each social ceremony is performed with the participation of wife and husband, both. Both are considered as inseparable part of each other. Wife is said as Ardhangini as like Lord Shiva is called as Ardh-Narishwar. So try to win the partners heart daily, by your doings.


How can a love sustain for a long period? When this feeling starts, there is an eagerness and anxiety in the mind, but with the passing of time, it decreases. With the start, a lover (he/she) tries all ways to impress the wished one; but slowly-slowly he/she loosens the charm, and love goes to a quarrel. So the clue is to continue the eagerness regularly from starting to the end, with warm enthusiasm, because the love is mere a happening, not the permanent. 

[From the book ''WHAT DOES FAMILY MEAN?" BY Ashok Singh Satyaveer]
Ashok Singh Satysveer[Mob: +918303406738]